Thursday, March 3, 2016

शायरों के गरीब खाने में

ढूँढ़ते रह गये फ़साने में
नफ़रतें हो गयीं भुलाने में

रात हर रोज़ की हकीक़त है
दिन की आरज़ू बुझाने में

कोई ज़िन्दा यहाँ गरीबी में
कोई ख्यालों के कैद खाने में

रोज़ प्याले कतार बंधते हैं
शायरों के गरीब खाने में

राह में लोग रोज़ मिलते हैं
रुकते हैं रास्ते बताने में

सांस हर हर्फ़ हर ग़ज़ल तेरी
चाह हकीक़त के कारखाने में

चाह को वो गुनाह कहते थे
कुछ तो कहने के बहाने में

आप से वासता नहीं मेरा
एक गरीबी रही ज़माने में
~ सूफ़ी बेनाम




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