Wednesday, November 18, 2015

दूब और बरगद

धरा-सम्पदा दूब और बरगद हम
पनपे नहीं एक ठौर साथ-साथ हम 

फ़िज़ा ओढ़े तुमको दूब आँचल सा
मैं था महत बरगद सा उमड़ रहा
कोशिश कि सटाव से ढक लूँ तुमको
पर दम और क़ज़ा के फलसफे थे

दबे थे तहों में नयी पहचान बनके
नमी से धरा में कुछ बीज जगे थे
बेचैन  उगने को सतह तक जो आये
कोंपल घास औ दरख़्त मुस्कराये

सुप्त अंकुरित हुए अपने शयन से
न जाने कब भिन्न अभिलक्षण लाये
आइंदा की पहचान किसे  कहाँ से
कब  गांत बदा पहचान लेकर आये

अंश हमारे आज  पवन के प्रवाह से
उड़ के बेचैन नियति के अयान से
अधीर हैं खोजने अस्तित्व फिर से
कुछ निस्सार कोने धरा सम्पदा में

~ सूफी बेनाम




आइंदा - future , गांत - plants , बदा - destined , महत - dense , सटाव - proximity, दम - life/breath, क़ज़ा - destruction, फलसफे - philosophy, निस्सारा - sacrificed/ scattered , अयान - nature/ disposition 

3 comments:

  1. अत्यंत सुंदर रचना।
    सूफी जी आपकी कविताएँ सदैव ही बारम्बार पढ़ने वाली होती हैं।
    अनु

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  2. अत्यंत सुंदर रचना।
    सूफी जी आपकी कविताएँ सदैव ही बारम्बार पढ़ने वाली होती हैं।
    अनु

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    1. Thanks Anu. Appreciation for our work is all that we seek. Its a lot of encouragement.

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