Tuesday, November 17, 2015

क्यों दौर-ए-जदीद को तक़दीर समझ लें

क्यों दौर-ए-जदीद को तक़दीर समझ लें ?
उम्र के तक़ाज़े को कैसे जवानी समझ लें ?

दस्त-ए-शिफ़ा है हर लम्हा मुलाक़ात का
पर क्यों न कुछ देर और बीमारी समझ लें ?

चुभता है हर अल्फ़ाज़ा-ए-नख मैं जानता हूँ
क्यों न कुछ देर मक़सद-ए-खामोशी समझ लें ?

बेताब नब्ज़ है मोहब्बात और जुदाई भी
क्यों न मुलाकात तुझमें खुद को समझ लें ?

नासमझी इंसा को बाम-ओ-दर बसाती रही
क्यों न चारागाह भी इसे तक़दीर समझ लें ?

ग़ैर मज़हबी गर हो जायें इंसा ये रिश्ते कैसे
क्यों न तुझे सूफी औ खुद बेनाम समझ लें ?

~ सूफी बेनाम

जदीद -  modern, नख - nails/claws, तक़ाज़ा - characteristic arising out of change/nature, दस्त-ए-शिफ़ा - hand that heals.



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