Thursday, October 16, 2014

सुकून -ए -क़लब

गर मर्ज़ सा है अंदाज़ शोखे ज़िन्दगी का
है कुछ देर को ही उफनना-तड़पना इसका
फिर जाने कैसे समझूँ  बेमर्ज़ क्या है यहाँ
इस मर्ज़-ए -लिबास में हैं कैद जबतक।

ये इकरार में तकरार का निखरता खेल कैसे
है दोस्ती में दुश्मन के जिस्म की मैल कैसे
समझना चाहता हूँ रिश्तों में दबी ज़रूरतों को
तफ़री लेती हैं चाहतें करवट बदल -बदल के।

ए सफ़ीर! है शुमार की हदद में सितम का आलम यहाँ
पर बेइन्तहां नशीले है होंठों पे रंग यहाँ कातिलों के
बेमर्म सा शोबादाह है, लम्स की फितरत
सुकून-ए-क़ल्ब है महज़ अब सिलवटों में।

~ सूफी बेनाम




शोबादाह - mire-able; शोखी - wantonness ;  सफ़ीर - ambassador; सुकून-ए-क़ल्ब - peace of heart. 

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