Sunday, September 7, 2014

नयी कलम

कहती ही नहीं है वो
जो मैं बताना चाहता हूँ।
क्यूँ एक नयी कलम  को
बांधने की कोशिश कर रहा हूँ ?

रहती तो है हाथ में मेरे,
और मेरे ही सूने लम्हों को
कोरे काग़ज़ो पे साकार करती है।
फिर मनचली सी  क्यूँ  है वो ?

कभी नोक इसकी भागती सी है
कभी बेइज़ज़त बहती है नुक्तों पर ।
क्यूँ स्याह डूबे अंधे-अक्षरों को
बेहिसाब तड़पती है वो ?

पर शायद अफरीदगार भी
पूरी कोशिश नहीं करता
गिरफ़्त अंगुलियों की
मुशफ़िक सी, कमज़ोर सी है।

सोचता हूँ कुछ देर इस
नयी कलम को रख दूँ
और गोदना बंद करूँ
अनकही, कोरे कागज़ों पर ।

पर बगैर मेरी अंगुलियों के
बेमतलब सी अधूरी सी है वो।

~ सूफी बेनाम



मुशफ़िक - compassionate; अफरीदगार - Lord, God.

1 comment:

  1. Hi Anand. Very calming to read through, really. The choice of subjects is wide & varied- all with a sensitivity that is good to approach as a reader. Look forward to more. S.

    ReplyDelete

Please leave comments after you read my work. It helps.