Friday, September 5, 2014

कशिश

इस कशिश से ज़िंदगी की तरन्नुम
कुछ फ़ीका सी,  शरमाया सी  है।

कोई नश्तर फिर नया आज़माओ
दर्द की धीगें अब बूढ़ी हो रही हैं।

क्यूँ दुहाई बेवफाई की जहांपर
सुरमयी रस्में कहानी हो चुकी हैं।

तेरी दोस्ती, मेरी चाहत की ये अर्ज़ी
महज़ एक नाजायज़ रस्म सी है।

कसमें अपनी जवानी खो चुकी हैं
ये नज़ाकत अब रवानी खो चुकी है।

सुबह की थीं, बेपरवाह मियादों की दरारें,
जिनमें सरक कर दफन थे स्वप्न अधूरे।

आज अंजोर से पहले जाग करके
खुली आँखों में उन्हें हैं घोलकर बहलाते ।

सिर्फ दर्द से ज़िंदगी का एहसास
कुछ काम है।

~ सूफी बेनाम









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