Sunday, September 7, 2014

गहरी-नींद

कुछ अपनी आदत  से
या महज़ सामान ढूंढने को
या फिर यूं ही थक कर के
तुम आते थे दो पल को।

दिखता नहीं था कभी चेहरा तुम्हारा
पर शायद तुम्हें मैं -से जानता हूँ
न जाने कितने रिश्तों-रंजिशों से बने हो
फिर भी अपनी चाहत से पहचानता हूँ।

रात गहरी नींद में था मैं सोया
बार-बार दरवाज़ा खुल रहा था
नींद टूटती दो-पल हर बार मेरी
शायद तुम आते थे।

~ सूफी बेनाम


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