Wednesday, June 26, 2013

मै उलझा नहीं कभी सवालों पे

है नशे पे नशा यूं परत दर परत
क्यों तहों में ये सांसें बेजान हैं ?
हों कई कह्कशे यूं ज़िक्र दर ज़िक्र
जैसे इन रगों में कोई बेनाम है।

परेशां हैं सांसें सितम दर सितम
कसम सिलवटों की अब्र बेइमान है
कागज़ पर रिहाइश खता दर खता
वक़्त बढता रहा ज़ुल्मो की तरह।

जिये एक हसरत शक्ल दर शक्ल
आज रूहानी ये जस्बा शरमसार है
बेछाड़ते हॊ यारा कदम दो कदम
क्या रेतीले शहरों में कोई निशान है ?

सिली हैं ये सांसें जिस्म दर जिस्म
यहाँ का मसीहा कोई इंसान है।


~ सूफी बेनाम


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