Thursday, May 30, 2013

इख़्तियार

कई दीवारें और 
एक दरवाज़ा है यहाँ 
दुनिया से सिमट कर 
थोड़ी जगह अलग कर 
चंद पथरों को जुटा कर 
एक घरोंदा बनाया।
इस में दुनिया से छुप कर 
अपनी सांसों, हसरतो खलिश 
को पिरोया, जगाया, बनाया।
कुछ खुद के लिये 
कुछ अपनों के लिये।
पर अपने ही में 
घुला हुआ अँधेरा 
इस घरोंदे में घर कर गया है।
कुछ उलझन में,
कुछ बेबसी में 
बिस्तर के करीब 
की दीवार चटखा कर 
एक खिड़की बनाई है।
कुछ रौशनी कुछ हवा 
कुछ ताज़गी का एहसास इससे।
पर अब इसको इख़्तियार करने को 
दो परत पर्दों को भी झुलाया है।

जब मै चाहता हूँ ये निष्कपट हो जाते है 
जब चाहता हूँ खिड़की 
को दफ्न कर देता हूँ।


~ सूफी बेनाम
   

No comments:

Post a Comment

Please leave comments after you read my work. It helps.