Friday, November 17, 2017

कहते कहते रुक जाते हैं

कहते कहते रुक जाते हैं

रुकते रुकते थक जाते हैं
आधी सांसें आधा जीवन
जैसे तुम बिन बिक जाते हैं

कह दो हम से सच हो ना तुम
सब कब हम से निभ पाते हैं
डूबे हैं सरिता मदिरा में
साहिल अब दुर्लभ पाते हैं

भारी सच पे सपना रहता
तस्वीरों को जब पाते हैं
बोध को जबसे खोना सीखा
रमना मुमकिन तब पाते हैं

भीगे लब पर चाय की चुस्की
जो तुमसे मिल कर पाते हैं
हंसते हंसते चढ़ती सांसें
आराइश खो कर पाते हैं

सांसों की मृगतृष्णा देखो
मर के हरिहर को पाते हैं
कितना हल्का हल्का लगता
भीतर तक जब तर जाते हैं

कहते कहते रुक जाते हैं
रुकते रुकते थक जाते हैं







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