Saturday, March 4, 2017

उलझा हुआ मांझा

आसमां से गिर कर
खुद से ही खुद को बांधता हुआ,
नायाब ग्रंथियों की
पेचीदा गांठों में उलझा,
अपनी तीव्रता से
अपनी ताकतों को चीरता
फलक की दूरियों को
छू कर के लौटा,
दरख्तों पर, टहनियों पर,
तार के खम्बों पर,
लटकता हुआ,
छतों पे हवाओं के वेग से
गर्द में सना हुआ,
बेपरवाह एड़ियों को
बेवजह काटता,
डैनों को डैनों से 
घेरता-फँसाता,
लहू का प्यासा नहीं हूँ,
पर मैं, बस मैं ही हूँ।

वैसे ही जैसे
टूट कर हवा में रोमणी
लट के उलझे शेष,
घूमते हैं,
ढूँढ़ते हैं कोने
जबकी सधी हुई जुल्फें
कटी पतंग जैसी
हवा के मंतव्य को समझते हुए
अपनी मंशा से
कभी जूड़े कभी चोटियों की
पेचीदा बनावट की
उड़ान में
बांधव की रस्सियों को
तोड़ कर आगे
बढ़ जाती हैं।

और मैं
उलझा हुआ मांझा
आसमां से गिर कर
खुद से ही खुद को बंधता हुआ..........


~ सूफ़ी बेनाम





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