Tuesday, January 17, 2017

अंगुलियाँ

इन्तेज़ारी सदी के बाद
हवा में है आवाज़ तुम्हारी
जिस्म की खरखराहट
उम्र को रेशमी कर गयी है
ग़ज़ल लब से नहीं
अँगुलियों से बोलती है
हकीकत की बेयक़ीनी में
हमने भी कान
अपनी हथेलियों पे ले रक्खे हैं
आवाज़ें, कवितायेँ और 
वस्ल
नाखूनों के कुरेदने से
मेरी लकीरों की गलियों में
घर ढूँढ़ते हैं
चाय की चुस्कियाँ जो घुल गयी थीं
नर्मदा की लहरों में
आज दिल्ली में धूप बन कर
बोलती हैं
तुम वो साया हो कि जिसके सच में
मेरी बेनामी के झूठ
पनपने लगे हैं
फिर से कौंधना
अलफ़ाज़ बनकर।

~ सूफ़ी बेनाम 







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