Sunday, February 21, 2016

निदा की शायराना सफर को समर्पित

बहुत नाप कर रही कहानी है यारो
ग़ज़ल एक छुपी ज़िंदगानी है यारो

यहाँ रोज़ मुश्त-ए-ख़ाक इन्सां सफर में
सुना फिर एक निदा झपकी है यारों

किताबों के पन्नों से स्याही में बहकर
निदा की नज़्म कान घुलती है यारों

निदा था सफर भरमें मिसरों में बुन-बुन
क्यों वक़्त की गिरह उलझी है यारों

न कुछ मिल सका और कह भी न पाया
मुलाकात गुज़री फ़िज़ा सी है यारों

निदा था अधर पर ग़ज़ल झूमता सा
फिदा रह गयी अब प्यासी है यारो
~ सूफी बेनाम









निदा - call / sound , फिदा - devotion, मुश्त-ए-ख़ाक - handful of dust (human being)

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