Thursday, September 17, 2015

गुज़र-नामा

कुछ उम्र गुज़र गयी थी इंसा की
कुछ ख़्वाब-ए-ताबीर को बाकी थी

है ज़र कुछ भी नहीं अहले-जहाँ
हर मौज लौट कर के टकराती थी

छाप इंसा की इंसान पर पड़ती यहाँ
नये नामों  से  रौश  दोहराती थी

इंसा बसर-गुज़र रहे बस उम्र में
तस्वीरें साथ देने को, दो बाकी थी

सायों के नाम ले कर गुज़र-नामा
शायरी हक़-ए-गुज़र बन आयी थी।
~ सूफी बेनाम




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