Saturday, September 5, 2015

पैराहन

क्या रिज़ा
कि देखूं अलग इसे
या रह पाऊं
संग इसके कभी।
बे-परछाई
अधूरा जीवन
सीरत में छुपा
अज्ञात अहम।
झलक ज़रुरत
महज़
शक्ल औ बदन
उसकी ।
तन्हाई से
उभारता
किसी सम्भावना का
उदगार शब्दों में।
किसी स्याही से
बह गुजरने को
बेक़रार
एक डूबा चेहरा ।
शायद किसी
समय की तलहटी का
सूफी
उभरता है मुझमे
पहर दो-पहर।
बेनाम बसेरा
पैराहन मेरा।

 ~ सूफी बेनाम


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