Wednesday, August 19, 2015

घिसे हुए खांचों

बचपन नासमझ रहा
ढूंढ़ता रहा जवानी को
जवानी बेताब रही
पिघल  चुकी थी किसी  में
एक बरसात से मोहब्बात तक के रास्ते
और वहा से दर्द का सफर
एक रिश्ता हज़ार सपने,
सब सीखे सिखाये हुए
बच्चों की तरह पढ़ाती रही ज़िन्दगी
पहचान  को बेताब मेरा दंभ
हर मुनासिब सहारा
ढूंढ़ता रहा।
आज मेरी कविता भी
इंसानी अधूरेपन को
वही पुराने रास्ते
ढूंढ़ती है।
इन घिसे हुए खांचों से अलग
कुछ नया चाहता हूँ।

~ सूफी बेनाम



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