Wednesday, August 12, 2015

निसर्ग

एक कमज़ोर, थकी हुई
निढ़ाल ग़ज़ल के वक्ष पर
कुछ अक्षर, अल्फ़ाज़ मात्राएँ
चिपके हुए थे।
निसर्ग था
कि गोदते थे उसके स्तन
अपने
नये पैनिले दाँतों से।
वेग से कूद कर
कुछ पीछे जाते
फिर नोचते थे उसे
कुछ बूँद दूध या खूं के लिये बूखे थे ।
वो उठी, आगे बड़ी पर
कुछ दूर कूद कर रूक गयी थी
अपनी वृति से मूह मोड़ना
कुछ कठिन था।
हर अल्फ़ाज़ को जगह देती
जोड़ती, उनका पेट भारती चलती ये ग़ज़ल
अब कमज़ोर दिखती है मुझे
बे-मायने हो चली वो खूंखार ग़ज़ल ।
~ सूफी बेनाम


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