Friday, July 10, 2015

एक परिंदा था और एक मैं गुज़रा

सूनी एक ठंडी छाओं लिये
एक परिंदा था और एक मैं गुज़रा
मेरे सामने थी एक सूखी डाली सी
फुदक के परिंदा उस पर से गुज़रा
शाम के लम्स को ओढ़े हुए
मैं भी एक अकेला सा था गुज़रा
वो हैरां था मैं भी कुछ ऐसा ही
छाँव लेने दरख्त से सिमटते थे
शामें लम्बी थी रात सूनी थी
एक लम्हा जो अथक था गुज़रा
वो चैन पाता था किसी डाली पर
मैं इंसान था तो समझ से गुज़रा
शामें नहीं हैं उड़ने के लिये
खुलापन उदास रहता है
वो आसमां था जो उस पर गुज़रा
मैं इन्सां था जो ज़मीं पर गुज़रा
खुश नहीं मैं भी कि अकेला था
उदास वो भी कई डाली गुज़रा
एक लम्हा था जो तेरे लिये
शायद वो उदास उसी पर गुज़रा
मैंने रोका उसे एक करीबी डाली पर
पर वो तनहा था उड़ कर गुज़रा
दरख़्त थामते नहीं थे उसे अपनी बाहों में
वो परिंदा था फुदक कर गुज़रा
मेरी डाली झुकी थी किसके लिए
मैं इंसान था तो समझ से गुज़रा।
~ सूफी बेनाम






3 comments:

  1. Ishwar aankhen thak gayi par man nahi bhara bahut khoob.....

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  2. Ishwar aankhen thak gayi par man nahi bhara bahut khoob.....

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  3. धन्यवाद रश्मी।

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