Friday, July 10, 2015

तेरे जिस्म को नहीं रूह को आना होगा

वो ख़्वाब जो खारिज़ देखे हैं तेरे साथ से
वो उदासीन आइन्दा को कर देते हैं
मुझे अब ये इल्म नहीं मैं मैं  रहूँ या बदलूं
कुछ तो तुझको भी अब शायद समझना होगा।

क्या मौसम कोई  जो रूक-रूक के इंतज़ार करे
हूँ त्यौहार नहीं जो सजा ले ईद औ दिवाली
कोई परंपरा नहीं जिसे यूं ही निभाना होगा,
अब तेरे जिस्म को नहीं रूह को आना होगा।

बुझूं कैसे कि तेरी निगाहों का सितारा मैं था
माना कि सुबह डूब गया औ नज़र से महसूस न हुआ
मुझे अब मेरे लिये कुछ थोड़ा बदलना होगा
शायद अब रौशनी की बेखुदी में मारना होगा।

सितम ये नहीं कि मैं ज़िंदा हूँ साथ तेरे मर के भी
सितम ये है गुज़रे वक़्त के लम्हात जब भी उभरें
रहूँ बेनाम मैं , तुझे रिश्ता कोई खुद ही कुचलना होगा
मेरी जान तुझे मुझ से अकेले ही गुज़ारना होगा।

~ सूफी बेनाम



4 comments:

  1. बहुत खूब रूह से निकले शब्द कहीं रूह को छू गए।

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  2. बहुत खूब रूह से निकले शब्द कहीं रूह को छू गए।

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  3. I really am thankful for this appreciation Rashmi ji.

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