Sunday, May 24, 2015

बावक़्त बदलाव

हर बर्क़-ए-उजाला, चिराग बुझा दिया करो
सिर्फ रातों को इंतज़ार की सज़ा काफी है।

हर लम्हा ना याद, उन इत्तेफ़ाक़ को करो
मौसम को याद-ए-बारिश की सज़ा काफ़ी है।

लिख-लिख के न यूं कागज़ को कुरेदा करो
जज़बात को बारहा इज़हार की सज़ा काफी है।

अल्फाज़ो को बे-इस्बात सहारा ही देते रहो
दीन को एक इत्तेफ़ाक़ी दीदार की सज़ा काफी है।

लुटे रास्तों पे दोस्त, नामाबर कई बेनाम रहे
रिश्तों को बावक़्त बदलने की सज़ा काफी है।

~ सूफी बेनाम

नामाबर - messenger ; बर्क़ - lightening ; बर्क़-ए-उजाला - used for morning; बारहा - repeated; बावक़्त - in time ; बे-इस्बात - unconfirmed ; इत्तेफ़ाक़ी - occasional, by chance .




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