Thursday, April 16, 2015

एक दोस्ताना बियर

ज़िन्दगी एक दोस्त की तरह
गुज़र हो आयी
जब मिली बस, और भी भाने लगी
मुझको तन्हाई
थे बरस वो खामखाँ ही बीतते
पिसते ढुलकते
उस मुकाम पे ढूँढ़ते थे तुझको जहाँ
दोस्ती छोड़ आयी
हर मुलाकात पे खिल उठती है
ख्वाबगाह कोई
जहाँ हक़ीक़त से तिलमिलाते सपने
वज़ूद बेचते थे
वहां कतार दर कतार उम्मीदें बिछी
देखीं है हमने
एक भरी दोपहर की दोस्ताना बियर से
थी आँखों में नमी उत्तर आयी।
~ सूफी बेनाम




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