Wednesday, August 10, 2016

स्वरचित

लिखते-लिखते
शब्दों से खुद
एक जाल सा बन जाता है।
स्वरचित ही
मुझे
फाँस लेता है।
अपना-पन अपने शब्दों में
इतना होता है कि मैं
रोक नहीं पाता इनको।
मात्राओं ,आवाज़ों, अल्फ़ाज़ों में
उलझ सा जाता हूँ
कविता बहाता हूँ।
जाल में फंसे घुन की तरह
उलझता फंसता सांसों को घेरता पिरोता
अंत में मुझे शब्द खा लेते हैं।
बची हुए बेनाम अस्थियों में
कवि कहलाता हूँ।


~ सूफ़ी बेनाम


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