Thursday, April 10, 2014

एक ख्याल, बुनदा - बुनदा सा

कैसे रहा ज़ुल्फ़ की
तहरीर में गुम
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।
कभी - कभी झांकता है
नज़र आता है
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

काक के कोहराम सी
बेसाध लटें
उलझी हुई तश्बीहों को बुन
नज़र को मूंद चुकी थीं लेकिन
फिर भी कानों में
छनकता है
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

सांसो की स्याही को
जिस्म की दवात पर
बार-बार बे-लिखे डुबोया
बेबसी में कुछ ढूंढने को
पलकों के कोरेपन पे
अनकही कुछ गूंथ रहा था
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

तेरी ज़ुल्फ़ों की
भटकी हुई गलियाँ
मेरे जिस्म के
भूले हुए दयरो से
गुज़रा करती हैं
इन गलियों के बेसाध सायों में
छनकता है एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

~ सूफी बेनाम


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