क्यों साकित हैं ये सूखे पत्ते ?
ज़मीं को कहकशां सा सजा रखा है
मानो थक के गोद में लौटे है माँ के बच्चे
यहाँ मैदान में कोहराम सा मचा रखा है।
जो राहों को तकते रहे सूखने से पहले
आज हर पहचाने रास्ते को ढक गये है
ऊंचे घने दरख्त भी इन-बिन अधूरे
इन ठूंठों को उधाड़ा कर गये हैं।
जिस्म की शाख पे अख़्ज़ ये लाख पत्ते
तेरे लम्स से जग कर ताज़ा हुए थे
कहीं पीत कही सुर्ख शादाब था इनका
किसी बेरुखी से ये खफा हुए हैं।
बेसाध आस्मा की चाहत में बंधकर
हर शाख में गुल महक उठे थे
रंगों की फितरत में बंधा जब न था तू
तब खुशबू से जंगल सराबोर हुऐ है।
कहीं शर्मसार जड़ों ने ज़मीं से उलझकर
फ़िज़ा को छाँव-गुल के महके वादे किये थे
तुम रहे मदहोश-आसमां में बिखरे अधूरे
मै भी ज़मीन-ए-शिददत से जकड़ा रहा हूँ।
जो बिछड़े हैं डालों के रिश्ता-ए-पकड़ से
वो मौसम-ए-रुखसत तक रंगीन रहे थे
लिए यादों के मौसम और कई हज़ार लम्हे
वो सूखे से ज़मीन पे बिखरे हुऐ हैं।
रुकता नहीं कोई इनको छूने-पलटने
न ही कोई इनकी फरियाद सुन पाया
दबे पाँव हवा के झोंको में सिसक कर
इस जहाँ को बादे-वफ़ा कह गये हैं।
तुम खुदा हो जहाँ के, तो बस वहीं टिके रहना
यहाँ हज़ारो की तादाद में दिल लुट रहे है
बेज़ुबां-ए-बशर को समझना परखना
बदलते मुक्क़दर के बस में नहीं है।
मैं कुछ देर रुकूँ ? या रुका क्यों यहाँ मैं ?
जहाँ नासमझी में कई सर सजदे में झुके हैं
मेरी शाखों में चाहत इंसा की है बस
कई खुदा आसमा पे लुट -मर रहे हैं।
जो बिछड़े हैं डालों के रिश्ता-ए-पकड़ से
जो मौसम-ए-रुखसत तक रंगीन रहे थे
लिए यादों के मौसम और कई हज़ार लम्हे
वो सूखे से ज़मीन पे बिखरे हुऐ हैं।
~ सूफी बेनाम
(साकित - dropped fallen lost, अख़्ज़ - grasp, शादाब - freshness).
ज़मीं को कहकशां सा सजा रखा है
मानो थक के गोद में लौटे है माँ के बच्चे
यहाँ मैदान में कोहराम सा मचा रखा है।
जो राहों को तकते रहे सूखने से पहले
आज हर पहचाने रास्ते को ढक गये है
ऊंचे घने दरख्त भी इन-बिन अधूरे
इन ठूंठों को उधाड़ा कर गये हैं।
जिस्म की शाख पे अख़्ज़ ये लाख पत्ते
तेरे लम्स से जग कर ताज़ा हुए थे
कहीं पीत कही सुर्ख शादाब था इनका
किसी बेरुखी से ये खफा हुए हैं।
बेसाध आस्मा की चाहत में बंधकर
हर शाख में गुल महक उठे थे
रंगों की फितरत में बंधा जब न था तू
तब खुशबू से जंगल सराबोर हुऐ है।
कहीं शर्मसार जड़ों ने ज़मीं से उलझकर
फ़िज़ा को छाँव-गुल के महके वादे किये थे
तुम रहे मदहोश-आसमां में बिखरे अधूरे
मै भी ज़मीन-ए-शिददत से जकड़ा रहा हूँ।
जो बिछड़े हैं डालों के रिश्ता-ए-पकड़ से
वो मौसम-ए-रुखसत तक रंगीन रहे थे
लिए यादों के मौसम और कई हज़ार लम्हे
वो सूखे से ज़मीन पे बिखरे हुऐ हैं।
रुकता नहीं कोई इनको छूने-पलटने
न ही कोई इनकी फरियाद सुन पाया
दबे पाँव हवा के झोंको में सिसक कर
इस जहाँ को बादे-वफ़ा कह गये हैं।
तुम खुदा हो जहाँ के, तो बस वहीं टिके रहना
यहाँ हज़ारो की तादाद में दिल लुट रहे है
बेज़ुबां-ए-बशर को समझना परखना
बदलते मुक्क़दर के बस में नहीं है।
मैं कुछ देर रुकूँ ? या रुका क्यों यहाँ मैं ?
जहाँ नासमझी में कई सर सजदे में झुके हैं
मेरी शाखों में चाहत इंसा की है बस
कई खुदा आसमा पे लुट -मर रहे हैं।
जो बिछड़े हैं डालों के रिश्ता-ए-पकड़ से
जो मौसम-ए-रुखसत तक रंगीन रहे थे
लिए यादों के मौसम और कई हज़ार लम्हे
वो सूखे से ज़मीन पे बिखरे हुऐ हैं।
~ सूफी बेनाम
(साकित - dropped fallen lost, अख़्ज़ - grasp, शादाब - freshness).