कैसा ख़ासाक सा है जीने का फ़ितूर
यहाँ सूखे पत्ते भी गर्द में
ज़िन्दगी से पहचान की
उम्मीद से घूमते हैं।
जहाँ मेरे काबिज़ नहीं
आसमां और ज़मीं
उस जहान में मैं ढूंढ़ता हूँ
वो शकल जो मेरी हो।
यूं ही किसी क़ातिब ने
लिख दिया है नाम मेरा
इस जिस्म पर जो आज
मुझे ढाक कर के झूमता है।
खासियत ये रही इस दौर की
खाफगी कितनी भी रही
खला से ज़मी तक
हर ज़र्रा नायब सा है।
हर शक्ल एक सी है
बस नक्श बदलते रहे
नाम बदलते रहे तवारीख़ में।
~ सूफी बेनाम।
तवारीख़ - register ; खाफगी - anger; क़ातिब - scribe ; काबिज़ - in control ; ख़ासाक - trash
यहाँ सूखे पत्ते भी गर्द में
ज़िन्दगी से पहचान की
उम्मीद से घूमते हैं।
जहाँ मेरे काबिज़ नहीं
आसमां और ज़मीं
उस जहान में मैं ढूंढ़ता हूँ
वो शकल जो मेरी हो।
यूं ही किसी क़ातिब ने
लिख दिया है नाम मेरा
इस जिस्म पर जो आज
मुझे ढाक कर के झूमता है।
खासियत ये रही इस दौर की
खाफगी कितनी भी रही
खला से ज़मी तक
हर ज़र्रा नायब सा है।
हर शक्ल एक सी है
बस नक्श बदलते रहे
नाम बदलते रहे तवारीख़ में।
~ सूफी बेनाम।
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