Friday, February 28, 2014

फ़ितूर

कैसा ख़ासाक सा है जीने का फ़ितूर
यहाँ सूखे पत्ते भी गर्द में
ज़िन्दगी से  पहचान  की
उम्मीद से घूमते हैं।

जहाँ मेरे काबिज़ नहीं
आसमां और ज़मीं
उस जहान में मैं  ढूंढ़ता हूँ
वो शकल जो मेरी हो।

यूं ही किसी क़ातिब ने
लिख दिया है नाम मेरा
इस जिस्म पर जो आज
मुझे ढाक कर के झूमता है।

खासियत ये रही इस दौर की
खाफगी कितनी भी रही
खला से ज़मी तक
हर ज़र्रा नायब सा है।

हर शक्ल एक सी है
बस नक्श बदलते रहे

नाम बदलते रहे तवारीख़ में।

~ सूफी बेनाम।



तवारीख़ - register ; खाफगी - anger; क़ातिब - scribe ; काबिज़ - in control ; ख़ासाक - trash

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