रफ्ता - रफ्ता - आहिस्ता …
कुछ देर को रुकी तो थी,
वो शाम तुम्हारे इंतज़ार को
पर सिर्फ अपनी ख्वाईश पर
उसे रोक न पाया।
वो लौट के आती भी रही
हर रोज़ उसी पहर पर
पर शायद तुम वो दिन
बिता न पाये जहाँ हम
तुमको छोड़ आये थे।
आज भी शाम मेरे सामने
एक बंद ताबूत सा लेकर बैठी है
उसमें उलझे टूटे से
कुछ अधलिखे मिसरे बिखरे हैं
अब इनको पिरो नहीं पाता।
उलझन उन अंधेरों की है
या दिन कि तहक़ीक़,
देखा तो है हर तारिख पर
एक नये दिन को रात का
हाथ थामने को बढ़ते हर शाम को।
~ सूफी बेनाम
कुछ देर को रुकी तो थी,
वो शाम तुम्हारे इंतज़ार को
पर सिर्फ अपनी ख्वाईश पर
उसे रोक न पाया।
वो लौट के आती भी रही
हर रोज़ उसी पहर पर
पर शायद तुम वो दिन
बिता न पाये जहाँ हम
तुमको छोड़ आये थे।
आज भी शाम मेरे सामने
एक बंद ताबूत सा लेकर बैठी है
उसमें उलझे टूटे से
कुछ अधलिखे मिसरे बिखरे हैं
अब इनको पिरो नहीं पाता।
उलझन उन अंधेरों की है
या दिन कि तहक़ीक़,
देखा तो है हर तारिख पर
एक नये दिन को रात का
हाथ थामने को बढ़ते हर शाम को।
~ सूफी बेनाम
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