Wednesday, May 7, 2014

कैसे कलम से रिश्ता जोडूं जज़्ब का ....

कैसी बंधी सी कलम है ये
सिर्फ कागज़ पर चलती है
शब्दों में कहती है और
हर जज़्ब को सिर्फ़ अलफ़ाज़ हैं।

देखा मैंने कि जज़्बात मेरे
इतने सुलझे कभी नहीं थे कि
उनको किसी ज़ुबान या अलफ़ाज़ से
बंधता - पिरोता या समझ पाता।

पंछिओं से बेचैन - परेशां  उड़ते रहे
कभी दाने को कभी गुनगुनाने को
आज़ाद  ये जज़बात बहते रहे
आसमां कि तहों में धारती के करीब।

जब भी गूंथा मिसरों के जोड़ों को
खुद से पहचान मुश्किल थी मेरी
सोचता हूँ इन्हें आज़ाद ही छोड़ दूँ
शायद पहचान बने कोई।

~ सूफी बेनाम


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