Sunday, December 20, 2015

रेशमी-गुंचा साँस मुबारक है ग़ज़ल

वैरागी दीवानगी निभाती है ग़ज़ल
अश्क के  सपने सुलगाती है ग़ज़ल

लिखा था हिज्र के वीरानों में जिसे
वस्ल के रास्ते दिखलाती है ग़ज़ल

फ़रियाद के अर्गल खढ़काती हुई
तेरी शिकायत सुनने आती है ग़ज़ल

तराशती है जब जब उसे लिखता हूँ
नये नये मुकाम ले आती है ग़ज़ल

कभी कभी शम्स तलक परछाई है
वरना  सायों की रातरानी है ग़ज़ल

मिलती है मुझसे बे-अदब सादी सी
पर अक्सर आगोश महकती है ग़ज़ल

सुबह का खुमार नशा हर रात का
सूफीया धिक्र सुलग गुलाबी है ग़ज़ल

किसी का ख़म, हिना सिन्दूर सी
चूड़ी कोई कंगन खनकती है ग़ज़ल

चन्दन भी चांदिनी बेहिस सवालों सी
मेरे रोम-रोम को महकाती है ग़ज़ल

बेवजह दिल को सुलगता  कौन है
कागज़ पे बिलखती तड़पती है ग़ज़ल

कुछ ढकती है साज़-ए-दिल अक्सर
सूती शिफॉन कभी रेशमी है ग़ज़ल

नहीं ढूंढ़ती है रिश्ते इंसानों से अब
आजकल किताबी हो गयी है ग़ज़ल

ज़रा करीब आओ आजमाएं हम भी
क्या फुसफुसाती क्या सुनाती है ग़ज़ल

ज़ुल्फ़ की तहरीर में बाली झूमती  हुई
काक के कोहराम सी खुमारी है ग़ज़ल

रात अकेली है नींद नहीं आती इसको
सिरहाने अक्सर मश्क़ जलती है ग़ज़ल

ख्याल ही नहीं यादें औ अल्फ़ाज़ भी हैं
सबको नयी पहचान दिलाती है ग़ज़ल

बेनाम बगैर बेअंजाम बेआवाज़ अधूरी है
रदीफ़ औ काफ़िया पे सुलझती है ग़ज़ल


गुंचा - bud, वैरागी - a spiritual realization that leads to indifference, हिज्र - separation from beloved, वस्ल - union, अर्गल - door knocker, शम्स - sun/Truth as used in this work, रातरानी - cestrum nocturnum, आगोश - embrace, खुमार - intoxication, ख़म - lock of hair, साज़-ए-दिल - musical instrument of heart, तहरीर - writing, बाली - ear ring, मश्क़ - letter writing/ practice




~ सूफी बेनाम 

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