क़ाफ़िया अत
रदीफ़ हो गई है
ग़ज़ल मेरी अदालत हो गयी है
हसरत तेरी इरादत हो गयी है
शुआओं से बुझी नहीं जो रातों में
चाहतें कोरी खल्वत हो गयी है
खुलती है नींद हररोज़ रातों में
सांसें तेरी मसाफ़त हो गयी है
सिरहाने मेरे तेरा क़ल्ब है यूं तो
दर-हकीक़त अज़ीयत हो गयी है
खुदाई सवाल रदीफ़ काफ़िया में
चाहत मेरी मुरव्वत हो गयी है
बद हवासी में ख़्याल समेटे-बटोरे
नज़्म मेरी नदामत हो गयी है
था सूफिया मगर इतना नहीं था
ज़िल्ल तेरी क़यामत हो गयी है
~ सूफी बेनाम
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