मेरे नक़ाब को अपनी आँखे चुभाने वाले
कभी मुझे छू के महसूस तो किया होता
ज़िन्दा वो झूठ भी हैं जो राज़ बने रहते हैं
माँस ये चेहरे को महसूस तो किया होता
लाल लहू उतना ही है नकाब का जितना
असल के चहरों ने था हर रोज़ पिया होता
काश तू उन से अलग होता उनसे जिनने
सच के वास्ते सौ झूठ क़त्ल किया होता।
~ सूफ़ी बेनाम
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