Thursday, December 22, 2016

काश हद खुद की हम सिए होते



अब्दुल हमीद अदम के एक मिसरे में गिरह देकर ग़ज़ल में उतरने की कोशिश :
वज़्न - 2122 1212 22 / 112
अर्कान - फाइलातुन मुफ़ाईलुन फैलुन
बह्र - बह्रे खफी़फ मुसद्दस मख्बून
काफ़िया - ए (स्वर)
रदीफ़ - होते

गिरह :
आस भर कर उफन उठी लहरें
काश थोड़ी सी हम पिए होते

मतला :
दिल शिकन चार तो दिए होते
दर्द ले साथ हम जिए होते

वक़्त वीरान सी पहेली है
गुफ़्तगू आप ही किए होते

आशना आप और पहेली भी
सांस पे सांस से गुदे होते

छू सके गर नहीं तुम्हे लब से
अक्स को चूम कर जिए होते

राज़दां दिलबरी रही तुम से
काश हद खुद की हम सिए होते

करवटें आप तक न दें पहुंचा
ख़्वाब निगरान तो किए होते

तापते रह गये दिल-ए-ज़ीनत
सर्द बेनाम ही जले होते

~ सूफ़ी बेनाम







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