Monday, December 12, 2016

जो नहीं जानते मज़हब की दवा देते हैं

जनाब साहिर लुधियानवी साहब के मिसरे में गिरह दे कर ग़ज़ल में उतरने की कोशिश
गिरह :

इश्क़ की आह पे पीता गया तम का प्याला
आप अब शौक से दे लें जो सज़ा देते हैं

मतला :

जीते वो ही हैं जो हर दिन को जला देते हैं
खोजते नौ को हैं यादों को सुला देते हैं

रात अब तलक नहीं भूल सकी वो हसरत
ख्वाब रातों को यूं मखमल की सज़ा देते हैं

प्यास की स्याह तलब और नफ़ी की आदत
जो नहीं जानते मज़हब की दवा देते हैं

भूल कर आप का घर राह की मंज़िल पे हम
गोया परछाई हक़ीक़त में मिला देते हैं

हम भी बेनाम रहे यूं कि दिलों के प्याले
अश्क़ में अस्ल को हर रोज़ जगा देते हैं

~ सूफ़ी बेनाम


-- 2122 1122 1122 22/112


No comments:

Post a Comment

Please leave comments after you read my work. It helps.