Monday, December 12, 2016

ख्वाइशों के डोडे

अब
अतीत का शोर
वर्तमानी-दरीचों के
पारभासी काँच से भरे
नाज़ुक दिलहों पर
दस्तक़ नहीं करता ।
 
न ही
भविष्य की अफवाहें
कुरेदती हैं उम्मीद के
फाहों से
आज के नाखूनों में
गुदे हिसाब-क़िताब।
व्यग्र-उद्वेग वासना भी
अपनी बेमियादी
की घोषणा
बदन की सतह पर
करके
धमनियों में प्रवाहित
होने के लिये
एक स्पर्श के आभाव से
शेर दर शेर
ग़ज़लों में
जमने लगी हैं।
मौसम सर्द गर्म
और बारिश के सिवा
अब कुछ भी नहीं।
मुराद-ए-वस्ल
जगती है
दिखती हैं
मज़ाक बनती हैं
ग़ुज़र जाती हैं।
नर्म तकिये भी
ख्वाइशों के डोडों से फूट-कर
सेमल से  
रेशमी नकाब चढे
कुछ बीज
ले उड़े हैं।

तुम सुनाओ .........
क्या ये बीज
तुम्हारी ख्वाइशों के
फ़ित्ना-गर गिल की
नमी पे
अंकुर तो नहीं
छोड़ बैठे हैं ?

~ सूफ़ी बेनाम


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