और-फिर का एक
सूखा पत्ता,
अब-कैसे की
राह पर चलकर,
खैर-अब के
काँटों पे अटकता,
फिर-कभी के
पंचतंत्र के जाल को ,
खैर-तुम बस तुम्ही रहना
कहकर,
कौन-कहाँ से क्या फ़र्क़ पड़ता है
सोचता हुआ,
जीवन यथार्थ को चूमकर
स्वीकार कर,
मिट्टी में
जा गिरा है
और-फिर का एक
सूखा पत्ता।
~ सूफ़ी बेनाम
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