Wednesday, October 12, 2016

रोज़ क्षितिज पे

जब मिलता हूँ तुमसे ,
बेरुखी से यूं मिलता हूँ

कि दयार-ए-ज़िन्दगी
ज़िन्दगी सी होती है

रस्म-ए-निगाह की
दूरियों से ही मिलता हूँ

दौर-ए-दीवानगी
बेहद्द सी होती है

दूरियों में पल रहे हैं
आसमां और ज़मीं भी

पर रोज़ क्षितिज पे
रौशनी सी होती है।

~ सूफ़ी बेनाम


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