रोज़ क्षितिज पे
जब मिलता हूँ तुमसे ,
बेरुखी से यूं मिलता हूँ
कि दयार-ए-ज़िन्दगी
ज़िन्दगी सी होती है
रस्म-ए-निगाह की
दूरियों से ही मिलता हूँ
दौर-ए-दीवानगी
बेहद्द सी होती है
दूरियों में पल रहे हैं
आसमां और ज़मीं भी
पर रोज़ क्षितिज पे
रौशनी सी होती है।
~ सूफ़ी बेनाम
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