Wednesday, October 12, 2016

एक रावण - सबका दश्हरा

जो कथा में गुंथा है
सियाराम की .........
जो निहित है मुझमें
रघुनाथ के व्याख्यान से
जो काय के शिल्प से
मेरे रोम-रोम में बसा हुआ
जो निडर है सिया-चेतना
के शाप से
जो भीड़ में अचल
जलने का धैर्य रखता हुआ
वो खुद को बना चुका है
लक्ष्य सबके राम का
है अहंकार, लोभ, मोह, क्रोध,
लोभ, काम, जड़-मायावी
पर ज़रूरी है
राम के संबोध के लिये।

माया की प्रवृत्ति
परस्पर-स्पंदन है
अभौतिक्ता, अध्यात्म का
पूर्ण विराम लगाती है।

बोध-विकास अगर
एक तरफ़ा न हो तो
रामायण के
सम्पूर्ण चक्र से
न राम का आरा टूटता है
न रावण का पहिया
सामाजिक नियमितता
सालाना पर्व मनाकर,
अगले मौसमी बदलाव में
होलिका जलती है।

कुछ तो जलाना है ज़रूरी 
एक पर्व मानाने के लिये।

~ सूफ़ी बेनाम


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