Saturday, October 1, 2016

भीतर ही भीतर

कौन पढ़ रहा है मुझको
भीतर ही भीतर
गुदगुदा के पनने पलटता है
कौन पढ़ रहा है मुझको
अँगुलियों से
वर्णों की मालाछूता है
कागजों की करवट बदलता है
रोकता है पलटने से
जूड़े की कांटी से
कौन पढ़ रहा है मुझको
महसूस होता है कहींपर
कौन पढ़ रहा है मुझको
भीतर ही भीतर
महसूस होता है
शब्दों की धरा में
धंस सा गया था
हक़ कागजों का कलम से
लिखता गया था
खुद को ज़ाया किया है बहुत
मैंने
माया को कागज़ पे रचकर
कौन पढ़ रहा है मुझको
मेरे भीतर ही भीतर
हर बात जो लिखता था
हर बात जो कहता हूँ
वो सच नहीं
सपना भी नहीं, मगर
अल्फ़ाज़ों के मिलने जुलने से
हालात बदलते थे
सो लिखता था
हर मोड़ नए शब्द
शब्दों से मिलते थे
तो लिखता था
एहसासों का स्वाद है मुझको
सो कहता हूँ
कोई भीतर ही भीतर
पढ़ रहा मुझको
जानता हूँ।


~ सूफ़ी बेनाम






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