Wednesday, October 19, 2016

निद्र-बोध

उस
दो-चौबीस की मुस्कराहट को
सुबह चार बजे देखा।
अचेत
बंद आंखों के भीतर
ख्याल को खुद-आगोश में कसे
रात के दर्पणों से अनभिज्ञ
निद्र-बोध संवाद की पटरियों पर
सरकती हुई
पुराने पते पर ही पहुंची होगी।
अब उसको कौन बताये
कि वो
चाँद से लौट आये।
~ सूफ़ी बेनाम

 

Monday, October 17, 2016

बहुत था दर्द लेकिन इस सफर में

1222 1222 122
बह्र - बह्रे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
अर्कान - मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फऊलुन
काफ़िया - ए (स्वर), रदीफ़ - बोलते हैं

गिरह:
बहुत था दर्द लेकिन इस सफर में 
बड़े चुप हों तो छोटे बोलते हैं

मतला :
पशेमाँ खत तुम्हारे बोलते हैं
हज़ारों मील पीछे बोलते हैं

उड़ानो की तुम्ही आगाज़ करना
हवाओं के ठिकाने बोलते हैं

उठो नाकामियों से जा के कह दो
अज़ल के भी हवाले बोलते हैं

वहीं परछाइयां बहकी तुमारी
किसी आँचल के साये बोलते हैं

उड़ा कुछ ज़ख्म से, ले कर दरिंदा
हलक उसके निवाले बोलते हैं

निगाहों में ज़रा ठहराव लाओ
शुआओं से वो लम्हे बोलते हैं

ज़रा गहराई में हमको भी खींचो
ये दरिया के किनारे बोलते हैं

कभी दिल भी बुझा रानाइयों पे
ज़ख्म मरहम से जलके बोलते हैं

ज़रा आगोश में भर लो हमें भी
सभी रातों को तारे बोलते हैं

शिकायत जो भी हो हमको बताना
सभी अख़बार वाले बोलते हैं

हमें भी नाम दे दो दिल लगालो
हमें बेनाम सारे बोलते हैं

~ सूफ़ी बेनाम


Sunday, October 16, 2016

आओ गुमनाम..............

पुराने
शरीर के
घिसे-पिटे नाम
स्वस्थ्य स्वय में खोजता
बीमारियों से ग्रस्त बेनाम
अकेलेपन के एक्सपोज़र
असमय-समय के हिसाब
चाहतों के नजुला-जुक़ाम
सपनों की रतौंधी आयाम
किसी के साथ गुज़रे दिन
उम्र के जोड़ों को सहलाते
गठिया ग्रस्त रिश्तों के फ़ाम
खुशगम के द्विद्रुहि-विकार
चर्म रोग के इस्लाम
सांस की खुशबू कर्क रोग
प्यार बना के आया कई
याद के मेन्टल गुलाम
आरोग्य नहीं रोग बनाओ
जीवन को
आओ गुमनाम।

~ सूफ़ी बेनाम



Thursday, October 13, 2016

कागज़ की कश्ती

अस्ल जब सहलाबों से
महासागरों की
गहराई बताता है
तब
बेड़ा जहाज़ बन जाता है
पर
इस विकार से
वो छोटी नदियों, नहरों, नालों
में बह नहीं पता है
कागज़ की कश्तियाँ
हर नज़रिये से बेहतर हैं
नदी के मुहाने से
उल्टा बहकर
बर्फीली पहाड़ियों तक
पहुँचने के लिये
दशा का अस्ल जानना
ज़रूरी है ।

~ सूफ़ी बेनाम


चाँद की ओज

चाँद की
ताज-पोशी से
अविज्ञ-रात का
सिकन्दर परेशान था

सवेरों के यूनान से
काठ के अश्वों पे सवार
आधी दुनिया

एक छत्र कर चुका था लेकिन
हर शाम
खुद चाँदनी की किंकरता
स्वीकार करते हुए
परछाइयों में छिपता
खुद को
अस्तित्व की कंदिराओं में
इंसान के दिलों तले
महफूज़ रखता था

क्षुद्र तारागणों ने भी
तारापति की घोषणा से
स्वीकृति दिखाई थी

व्यग्र व्याकुल बेचैन
सिकन्दर ने
जलदस्युओं के बादल
बटमार स्वप्न-करों,
सूक्ष्म लुटेरों,
पुरुष की वेदना
बेलगाम कवियों की टोलियां
नील के पत्थर
दर्द में टूटे घर
प्रेमप्रवण संगियों
विस्मयी आँधियों
की बड़ी फ़ौज इकठ्ठा की

फिर क्या
खूब युद्ध हुआ ........
तांत्रिकों ने साधा

ब्रह्मवादियों ने माया बताया
कवि-मात्र ने ख्याल से घेरा
आरोग्य-साधकों ने ऊर्जा का स्रोत बनाया

चाँद थक कर छुपा पर
ईद और करवाचौथ ने फिर-फिर ढूंढा
समुद्रों ने लहर भरा वक्ष फुलाया
चाँद को डुबाया
बादलों ने उसे घेर कर चूमा
गोपियों ने कृष्ण को बुलाया
पर
चाँद की ओजपर
कोई ज़ोर न आया
वो निष्कलंक आज़ाद
निशा-ध्वज पर फहराया

निद्रा रहित अँधेरे
स्वप्नों के संशय घरों में
जा छुपे हैं
दिन निकल आया है
शब-ए-बयार है
सिकन्दर के घायलों ने
कम्बलों में मूह छुपाया है

रण-सैय्यम ने
चाँद को घटना बढ़ना सिखाया है

होश में रहता सिकन्दर
तो नाम भी देता तुमको
 बेवक़ती ने तुम्हें चाँद बताया है।

~ सूफ़ी बेनाम


Wednesday, October 12, 2016

वाइल्ड-एलिक्सिर ( wild -elixir)

एसटी-लाउडर के
वाइल्ड-एलिक्सिर की
महक में सराबोर
हिन्दी
अक्सर ही
जब तुम्हारे स्कूटी के
पीछे
ज़बरन चढ़ बैठती है
तो उसे चिढ़ाने के लिये
दायें-बायें, उल्टा-सीधा
चलाती हो तुम
तब
देखा है मैंने कि
हिन्दी चीखकर
लिपट जाती है
कमर से तुम्हारी
करधनी बनकर
और फिर जब
अपने अधरों को
ले भिड़ती है
ज़ुबान
तुम्हारे ब्लाउज की
उजली पीठ की
रेफ पर
तब तुम्हारी रंगीली पाजेब
का एक नुख़्ता
खनक कर
कोहलपुरी को गाड़ी की ब्रेक पर
उर्दू करता है।


माथे पे सजी बिंदियां
साड़ी, टीके, बिछिया, हिजाब
ठोड़ी के तिल
समेत
बिना ट्रैफिक के
एहसासों से
एक्सीडेंट कर पड़ी है।

अचेत कविता तुम्हारी
फिर भी
बेसुध
बुदबुदा रही है
प्यार-महोब्बत की बातें
कहती है
"चले आओ"

~ सूफ़ी बेनाम



और-फिर का एक सूखा पत्ता

और-फिर का एक
सूखा पत्ता,
अब-कैसे की
राह पर चलकर,
खैर-अब के
काँटों पे अटकता,
फिर-कभी के
पंचतंत्र के जाल को ,
खैर-तुम बस तुम्ही रहना
कहकर,
कौन-कहाँ से क्या फ़र्क़ पड़ता है
सोचता हुआ,
जीवन यथार्थ को चूमकर
स्वीकार कर,
मिट्टी में
जा गिरा है
और-फिर का एक
सूखा पत्ता।


~ सूफ़ी बेनाम


रोज़ क्षितिज पे

जब मिलता हूँ तुमसे ,
बेरुखी से यूं मिलता हूँ

कि दयार-ए-ज़िन्दगी
ज़िन्दगी सी होती है

रस्म-ए-निगाह की
दूरियों से ही मिलता हूँ

दौर-ए-दीवानगी
बेहद्द सी होती है

दूरियों में पल रहे हैं
आसमां और ज़मीं भी

पर रोज़ क्षितिज पे
रौशनी सी होती है।

~ सूफ़ी बेनाम


एक रावण - सबका दश्हरा

जो कथा में गुंथा है
सियाराम की .........
जो निहित है मुझमें
रघुनाथ के व्याख्यान से
जो काय के शिल्प से
मेरे रोम-रोम में बसा हुआ
जो निडर है सिया-चेतना
के शाप से
जो भीड़ में अचल
जलने का धैर्य रखता हुआ
वो खुद को बना चुका है
लक्ष्य सबके राम का
है अहंकार, लोभ, मोह, क्रोध,
लोभ, काम, जड़-मायावी
पर ज़रूरी है
राम के संबोध के लिये।

माया की प्रवृत्ति
परस्पर-स्पंदन है
अभौतिक्ता, अध्यात्म का
पूर्ण विराम लगाती है।

बोध-विकास अगर
एक तरफ़ा न हो तो
रामायण के
सम्पूर्ण चक्र से
न राम का आरा टूटता है
न रावण का पहिया
सामाजिक नियमितता
सालाना पर्व मनाकर,
अगले मौसमी बदलाव में
होलिका जलती है।

कुछ तो जलाना है ज़रूरी 
एक पर्व मानाने के लिये।

~ सूफ़ी बेनाम


Sunday, October 9, 2016

इस राह को मंज़िल की आदत न हीं पड़ने दो

उर्दू अदब के बेहतरीन शायर जनाब बशीर बद्र साहब का एक शेर यूँ है.....

पत्थर की निगाह वालों,गम में वो रवानी है
खुद राह बना लेगा, बहता हुआ पानी है

वज़्न - 221 1222 221 1222
अर्कान - मफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन
बह्र - बह्रे हज़ज मुसम्मन अख़रब मुख़न्नक़

काफ़िया - आनी
रदीफ़ - है

जनाब जनाब बशीर बद्र साहब के मिसरे से गिरह देकर आप सबके साथ, ग़ज़ल में उतरने की कोशिश ....

किस चश्म से निकला है, अब कौन गवाही दे
खुद राह बना लेगा, बहता हुआ पानी है।

बादल से लदे दिन में अब आग लगनी है
इस नर्म से कम्बल की चाहत फरवानी है।

रेती-ले उजाड़ों के हालात बताते थे
गहरे एक सागर में डूब हुआ पानी है।

गर शौक बने जीवन तो राह मुसाफिर पर
कुछ सांस मचल कर के ये उम्र बितानी है।

धीरे से कदम रखना कमरे में अगर आओ
कुछ नींद का कच्चा पन, पायल की रवानी है।

इस राह को मंज़िल की आदत न हीं पड़ने दो
बस हाथ में एक सपना दो चाह दीवानी है।

दो कोस हमें दे दो मीलों के ये सेहरा से
कुछ दूर का वादा है दो सांस निभानी है।

एक लम्स की बस्ती में नवरात नवेली सी
बुझती न ये ख्वाइश है बस आग है पानी है

हर रोज़ सजा करना चाहत के सफ़ीने पर
हर शाम सुलगती सी ग़ज़लों में डुबानी है।

दिन रात परेशां हूँ जीवन न सधा मेरा
बस नींद की बोतल में एक रात सुहानी है।

मुह मोड़ के करवट में सोते है निज़ा करके
बेनाम सिरहानों पर ये रात बितानी है।


~ सूफ़ी बेनाम




Thursday, October 6, 2016

रुके हुए कमरे

रुके हुए कमरों की चार दीवारी में
झांकते हुए दरीचों पे अटकती
उड़ती चिड़ियां
नीली झीलें
बदलते आसमान
बिखरे गुलफ़ाम।

शायद,
पलट कर देखने पर मिलने लगें
बंद दराजों के
अनखुले लिफाफों में बेनाम पैगाम। 

चूने की रंग-रोगन
पे घिसटती हथेलियां
बखान करतीं बचपन के हंगामा। 

सागवान के रेशे लैकर-चढे पलंग पर
बेसुध गद्दों में
कई एहसासों के अर्क ग़ुलाम
नज़र ने सीख लिया है
एकटक टिके रहना निस्तब्धता में
सालों घिसे फ़र्श के मोजैक के उखड़ते टुकड़े
ले लेते हैं फटी एड़ियों से इन्तेक़ाम। 

~ सूफ़ी बेनाम



Saturday, October 1, 2016

भीतर ही भीतर

कौन पढ़ रहा है मुझको
भीतर ही भीतर
गुदगुदा के पनने पलटता है
कौन पढ़ रहा है मुझको
अँगुलियों से
वर्णों की मालाछूता है
कागजों की करवट बदलता है
रोकता है पलटने से
जूड़े की कांटी से
कौन पढ़ रहा है मुझको
महसूस होता है कहींपर
कौन पढ़ रहा है मुझको
भीतर ही भीतर
महसूस होता है
शब्दों की धरा में
धंस सा गया था
हक़ कागजों का कलम से
लिखता गया था
खुद को ज़ाया किया है बहुत
मैंने
माया को कागज़ पे रचकर
कौन पढ़ रहा है मुझको
मेरे भीतर ही भीतर
हर बात जो लिखता था
हर बात जो कहता हूँ
वो सच नहीं
सपना भी नहीं, मगर
अल्फ़ाज़ों के मिलने जुलने से
हालात बदलते थे
सो लिखता था
हर मोड़ नए शब्द
शब्दों से मिलते थे
तो लिखता था
एहसासों का स्वाद है मुझको
सो कहता हूँ
कोई भीतर ही भीतर
पढ़ रहा मुझको
जानता हूँ।


~ सूफ़ी बेनाम






दुप्पटे के नकापोश

एक सीधी लकीर ........
गाड़ियों का हुजूम
अनवरत ज़ारी
कल्पना की स्कूटी
सफारी पे भारी
ज़ूम करके निकलती
दुप्पटे के नकापोश
बन ट्रैफिक विकर्षण
क्या करे बेनाम फरामोश
भच्छ से दे मारी
आगे की गाड़ी
रेंगता हुआ समय
रेंगती धड़कन ........


~ सूफ़ी बेनाम