Wednesday, August 19, 2015

चेतना

ढूंढ़ता है गुज़रते हुए जिस्त का साथी क्यों ?
फिसलती हुई उम्मीद फिर चली आयी क्यों ?

चेतना दर्द की नहीं उम्मीदों की चुभती  है
बात इतनी सी मेरे समझ न आयी क्यों ?

माना, गुज़ारना मिजाज़ मुलाकातों का है
मेरी अधेड़ी में छुपने तेरी शाम आयी क्यों ?

स्पर्श एक मिसरे का लब पे  महसूस हुआ
पर याद किसी और वक़्त की आयी क्यों ?

उम्र की ढलान के रास्ते तेज़-चुस्त-साफ़ हैं
फिर अटकती है मेरे साथ तेरी परछाई क्यों ?

जिस समझ की दाद रही दुनिया अब तक
उसको इतनी नासमझी रास आयी क्यों ?

~ सूफी बेनाम




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