Monday, August 10, 2015

तेरी नज़्म

जब तेरी नज़्म को शमा की आग से रिझाने गया। 
मेरी परछाईं से एक बेदार मिसरा महक सा गया। 

कुछ लम्स खोजता लौ का दमकता किनारा रहा 
गुज़रती रात में तेरे एहसास का ज़िक्र बढ़ता गया। 

तुम मिली कहीं पे बेकस, मात्राओं में अल्फ़ाज़ों में 
या वक़्त रहते तुमको पढ़ने का सलीका आ गया। 

बेनाम तेरा छुपना शमा-ए-बज़्म में मुमकिन  नहीं 
मिलता हर झपक रौशनी को अंधेरों का सहारा गया। 
~ सूफी बेनाम 



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