क्यों गहराई से उभर आयीं थी लहरें कभी
क्या किसी सीने-किनारे टूटना ज़रूरी था।
गहनता रहती क्यों नहीं सतह पे शांत कभी
सुप्त-व्याकुलता को सतह पे उफनना ज़रूरी था।
नंगे पाँव चुन लाया था सीप का टुकड़ा तभी
सूखी चादर को सहलाब का तकाज़ा ज़रूरी था।
हाथों को खरे पानी का लम्स याद रहा फिरभी
तेरी ज़ुल्फ़ों से कुछ छीटों का बरसना ज़रूरी था।
मैं तेरी गहराई में बेनाम न रह पाया कभी
शायद चेहरों और लहरों से मिलना ज़रूरी था।
~ सूफी बेनाम
क्या किसी सीने-किनारे टूटना ज़रूरी था।
गहनता रहती क्यों नहीं सतह पे शांत कभी
सुप्त-व्याकुलता को सतह पे उफनना ज़रूरी था।
नंगे पाँव चुन लाया था सीप का टुकड़ा तभी
सूखी चादर को सहलाब का तकाज़ा ज़रूरी था।
हाथों को खरे पानी का लम्स याद रहा फिरभी
तेरी ज़ुल्फ़ों से कुछ छीटों का बरसना ज़रूरी था।
मैं तेरी गहराई में बेनाम न रह पाया कभी
शायद चेहरों और लहरों से मिलना ज़रूरी था।
~ सूफी बेनाम
No comments:
Post a Comment
Please leave comments after you read my work. It helps.