Friday, July 10, 2015

अक्स में अब वो झलक नहीं आती

अक्स में अब वो झलक नहीं आती
मुझे ढूंढने ज़िन्दगी नहीं आती

जिस मांझे की डोर पे इतराती थी पतंग
वो अब उसे थामने नहीं आती।
लहज़ा खुले आसमान में आवारगी था
अब किसी बदली पे करम नहीं आती।
सांस जो अब महज़ एक वादा रह गयी
उसको उलझाने तेरी शिरीन अदा नहीं आती।
मेरे कुछ दोस्त मुझसे परेशां से हैं
कि इस बेनाम शायर को आशिकी नहीं आती।

जिस डोर की गिरफ्त पे इतराती थी पतंग
वो अब उसकी उड़ान तानने नहीं आती।
पर
उसके(खुदा के) हाथों ने थामा था मुझे ऐसे
जैसे बच्चा हूँ कोई जिसको ज़िंदगानी नहीं आती।
कैफियत बेनाम सही पर अब शुक्रगुज़ार हूँ  तेरा
दिन गुज़रने के बाद तन्हाई भी टटोलने नहीं आती।
अक्स में अब वो झलक नहीं आती
मुझे ढूंढने ज़िन्दगी नहीं आती
~ सूफी बेनाम






3 comments:

  1. आपको पढ़ के मन खुश हो गया।

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  2. आपको पढ़ के मन खुश हो गया।

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