नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो
बात बहकती नहीं हम-नशीन मिसरों में
रातों का सफ़र लम्बा है, कुछ तो कह दो
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।
मैं अफ़्सुर्द नहीं, कुतुबखाने में दफनाया हुआ
न ही आशिक हूँ किसी बाहों में सजाया हुआ
बहती है कलम मेरी हर रोज़ की बग़ावत है
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।
हैं तो हैरां पर तरस परस्तिश पे मुझे आता है
किसी के लब पे था और फिर भी खाली रहा
रस्म रोज़ की बनायी है, कभी-कभी निभाने को
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।
कोई शायर नहीं हम, कि महफ़िल बेताब रहे
तेरी आज़माइश के तलबगार भी नहीं रहते हैं
आसरा है आफ्रीदा, ज़र-खेज़ ख्यालों का
ज़ख्म सौदा हैं मुझे अल्फ़ाज़ों का मरहम दे दो।
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।
~ सूफी बेनाम
बात बहकती नहीं हम-नशीन मिसरों में
रातों का सफ़र लम्बा है, कुछ तो कह दो
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।
मैं अफ़्सुर्द नहीं, कुतुबखाने में दफनाया हुआ
न ही आशिक हूँ किसी बाहों में सजाया हुआ
बहती है कलम मेरी हर रोज़ की बग़ावत है
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।
हैं तो हैरां पर तरस परस्तिश पे मुझे आता है
किसी के लब पे था और फिर भी खाली रहा
रस्म रोज़ की बनायी है, कभी-कभी निभाने को
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।
कोई शायर नहीं हम, कि महफ़िल बेताब रहे
तेरी आज़माइश के तलबगार भी नहीं रहते हैं
आसरा है आफ्रीदा, ज़र-खेज़ ख्यालों का
ज़ख्म सौदा हैं मुझे अल्फ़ाज़ों का मरहम दे दो।
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।
~ सूफी बेनाम
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ReplyDeleteधन्यवाद रश्मी।
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