Monday, July 27, 2015

बज़्म

यूं तो लहज़ा-ए-ज़िन्दगी नहीं बदगुमां शायद
फिर क्यों हौसले पस्त रहे अरमानों पर
शब-ए-शिकस्ता कोई शमा जल उठी होगी
ज़िक्र नहीं सायों का महफ़िल-ए- सूफी पर

नाउम्मीदी न छलके कहीं अल्फ़ाज़ों में
तेरी बज़्म में देहकेंगे एक ख्याल बनकर
चार दिल और भी बहकेंगे , जलेंगे शायद
मेरी हसरतें खिलेंगी तेरी आवाज़ बुनकर

~ सूफी बेनाम


Saturday, July 25, 2015

अचार की डेलियाँ और गस्से रोटी के

बेइन्तहां अचार की डेलियाँ
रोम-रोम मसाले तर-बतर
नाख़ून के सिन्के में दाग
अब भी गस्से मुलाकातों के
किस्मत की थाली से तोड़ के
कुछ अचारी यादों के मसले
कोने से छुआ के चपाती का निवाला
दाँतों से पीस कर
सूखी रोटी के वज़ूद का
बदलता हुआ स्वाद
आहा !

सजी हुई कटोरियों की ताज़ी तरकारी
को अब क्या समझायें ?
मुझे ये आचार की टुकड़ियों को
जीभ पे चलाना,
दबा के उभरते स्वाद का मज़ा
एक खट्टी बिखरी डकार
पसंद है।
~ सूफी बेनाम
 



Tuesday, July 21, 2015

एक दिन अकेले में निबट लेंगे

एक दिन अकेले में निबट लेंगे उससे
वो अपनों के बीच बेसाध हुई जाती है
जिस तलक मिलती है मुझसे सिर्फ मेरे लिये
उस लम्हा-ए-ज़िन्दगी को उम्र समझ लेते हैं।

तुम बुझा दो ये जस्ब, ये गम के रिश्ते
मोहब्बत दूरियों को अंजाम देने आयी है
कब तलक शर -ए-आगोश में रहेंगे बस्ते
फ़िज़ा रंग-ए -हिना बन के चली आयी है।

कोई चाहता था ये बहुत था ज़िन्दगी के लिये
आदत-ए-इनायात नया सबब ले के आयी है
ख़्वाबों का दीद हुआ उसे ज़बीं से मिटाने को
एक सोज़ सुबह जाह-ओ-हाशम बिठाने आयी है।
~ सूफी बेनाम

जाह-ओ-हाशम - rank and dignity





Saturday, July 18, 2015

नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो

नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो
बात बहकती नहीं हम-नशीन मिसरों में
रातों का सफ़र लम्बा है, कुछ तो कह दो
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।

मैं अफ़्सुर्द नहीं, कुतुबखाने में दफनाया हुआ
न ही आशिक हूँ किसी बाहों में सजाया हुआ
बहती है कलम मेरी हर रोज़ की बग़ावत है
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।

हैं तो हैरां पर तरस परस्तिश पे मुझे आता है
किसी के लब पे था और फिर भी खाली रहा
रस्म रोज़ की बनायी है, कभी-कभी निभाने को
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।

कोई शायर नहीं हम, कि महफ़िल बेताब रहे
तेरी आज़माइश के तलबगार भी नहीं रहते  हैं
आसरा है आफ्रीदा, ज़र-खेज़ ख्यालों का
ज़ख्म सौदा हैं मुझे अल्फ़ाज़ों का मरहम दे दो।

नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।

~ सूफी बेनाम


Friday, July 10, 2015

एक परिंदा था और एक मैं गुज़रा

सूनी एक ठंडी छाओं लिये
एक परिंदा था और एक मैं गुज़रा
मेरे सामने थी एक सूखी डाली सी
फुदक के परिंदा उस पर से गुज़रा
शाम के लम्स को ओढ़े हुए
मैं भी एक अकेला सा था गुज़रा
वो हैरां था मैं भी कुछ ऐसा ही
छाँव लेने दरख्त से सिमटते थे
शामें लम्बी थी रात सूनी थी
एक लम्हा जो अथक था गुज़रा
वो चैन पाता था किसी डाली पर
मैं इंसान था तो समझ से गुज़रा
शामें नहीं हैं उड़ने के लिये
खुलापन उदास रहता है
वो आसमां था जो उस पर गुज़रा
मैं इन्सां था जो ज़मीं पर गुज़रा
खुश नहीं मैं भी कि अकेला था
उदास वो भी कई डाली गुज़रा
एक लम्हा था जो तेरे लिये
शायद वो उदास उसी पर गुज़रा
मैंने रोका उसे एक करीबी डाली पर
पर वो तनहा था उड़ कर गुज़रा
दरख़्त थामते नहीं थे उसे अपनी बाहों में
वो परिंदा था फुदक कर गुज़रा
मेरी डाली झुकी थी किसके लिए
मैं इंसान था तो समझ से गुज़रा।
~ सूफी बेनाम






अक्स में अब वो झलक नहीं आती

अक्स में अब वो झलक नहीं आती
मुझे ढूंढने ज़िन्दगी नहीं आती

जिस मांझे की डोर पे इतराती थी पतंग
वो अब उसे थामने नहीं आती।
लहज़ा खुले आसमान में आवारगी था
अब किसी बदली पे करम नहीं आती।
सांस जो अब महज़ एक वादा रह गयी
उसको उलझाने तेरी शिरीन अदा नहीं आती।
मेरे कुछ दोस्त मुझसे परेशां से हैं
कि इस बेनाम शायर को आशिकी नहीं आती।

जिस डोर की गिरफ्त पे इतराती थी पतंग
वो अब उसकी उड़ान तानने नहीं आती।
पर
उसके(खुदा के) हाथों ने थामा था मुझे ऐसे
जैसे बच्चा हूँ कोई जिसको ज़िंदगानी नहीं आती।
कैफियत बेनाम सही पर अब शुक्रगुज़ार हूँ  तेरा
दिन गुज़रने के बाद तन्हाई भी टटोलने नहीं आती।
अक्स में अब वो झलक नहीं आती
मुझे ढूंढने ज़िन्दगी नहीं आती
~ सूफी बेनाम






तेरे जिस्म को नहीं रूह को आना होगा

वो ख़्वाब जो खारिज़ देखे हैं तेरे साथ से
वो उदासीन आइन्दा को कर देते हैं
मुझे अब ये इल्म नहीं मैं मैं  रहूँ या बदलूं
कुछ तो तुझको भी अब शायद समझना होगा।

क्या मौसम कोई  जो रूक-रूक के इंतज़ार करे
हूँ त्यौहार नहीं जो सजा ले ईद औ दिवाली
कोई परंपरा नहीं जिसे यूं ही निभाना होगा,
अब तेरे जिस्म को नहीं रूह को आना होगा।

बुझूं कैसे कि तेरी निगाहों का सितारा मैं था
माना कि सुबह डूब गया औ नज़र से महसूस न हुआ
मुझे अब मेरे लिये कुछ थोड़ा बदलना होगा
शायद अब रौशनी की बेखुदी में मारना होगा।

सितम ये नहीं कि मैं ज़िंदा हूँ साथ तेरे मर के भी
सितम ये है गुज़रे वक़्त के लम्हात जब भी उभरें
रहूँ बेनाम मैं , तुझे रिश्ता कोई खुद ही कुचलना होगा
मेरी जान तुझे मुझ से अकेले ही गुज़ारना होगा।

~ सूफी बेनाम



Thursday, July 9, 2015

माचिस की तीलियाँ

बुझी हुई माचिस
की तीलियों की तरह
हम कुछ निढाल से पढ़े हुए थे
सिरहाने पे ।
सिर की आग
पूरे जिस्म को
न जला पाई थी मेरे
गलने में अभी
एक सदी बाकी थी।
कुछ सूझता नहीं
क्यों काठ की तीली
इतनी लम्बी बनायी थी।
वो मसाला जो
तिल-सा कोने में चपका
क्या वही पहचान बनायी थी ?
कुछ ताज़ा तीलियों को
देख के उस आग का
अंदाज़ महसूस होता है
जो कभी
हमारे सर भी थी।

~ सूफी बेनाम