Monday, September 12, 2016

अब वक़्त आ गया है

इस शहर की परत दर-परत उधेड़नी पड़ेगी
घेराबंदी करनी होगी गलियों, बाज़ारों, कूंचों की
कुछ दूर निकल के आना पड़ेगा ज़िन्दगी से
तब क़त्ल-दफ़न, दोस्ती की लाशें मिलेंगी।


ज़मी को ताकते दरख्तों पे लटकते सस्य के
जीन-कोड की बारीकी से जांच करने के लिये
नोच के निकलना होगा छिलके और गूदे को
तब कहीं सुप्त-असल के क्षुद्र बीज मिलेंगे।


विदित नहीं होगा कभी सिर्फ़ सूर्य की रौशनी से
अस्ल, जो जीव आवर्ती पुनरुथान से उलझा हुआ है
मूंद-आखों को वृत्तियों में अहम् का हवन कर
मधु-स्थल में हाथ डालना होगा पीड़ा के चर्म को छूने के लिये ।


अब वक़्त आ गया है।


~ सूफ़ी बेनाम



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