Tuesday, September 6, 2016

मकरंद

जो ख़्याल
ठौर-बदन ढूँढ़ते थे
बे-नब्ज़ बेनाम
किताबों में
अपना इमान रखने लगे।


क्यों कागजों ने सोख  ली
वो स्याही
जो बहकर
पत्तियों में रंग भारती ?
बदकिस्मत !
अल्फ़ाज़ों की गिरह को
सच समझ बैठी।


~ सूफ़ी बेनाम


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