कहो !
क्या निस्तब्धता को
आदित्य की अवर्तमानता को
क्या नींद को उकेरने-उभारने ही को
ये रातें बनी हैं ?
कहो !
क्यों कच्ची गरदनों टेकने को,
ख़्वाबों की टूटी श्रृंखला दबाने को
पाहु-पाश के रत्यात्मक एहसासों को
तकियों की ज़रुरत पड़ने लगी है ?
कहो !
बदलकर कब हाड़-मॉस की मुड़ी हुई कोहनियां को
जीवांत पेड़ों के लट्ठों, ईटों चट्टानों को
सूती दायरों में कैद मखमल और कपास के अम्बारों ने
शयन कक्ष में एक तकियायी हासिल की है ?
शायद
विलासता और सुख साधना में धंसकर
मनुष्य जीवी प्राणी उस स्तर पे पहुंचा है कि
समय सारिणी से जीवन बिताता है तकियों पे सोता है
स्वप्न-दर्शी संभावनों को झूठा बताता है।
~ सूफ़ी बेनाम
क्या निस्तब्धता को
आदित्य की अवर्तमानता को
क्या नींद को उकेरने-उभारने ही को
ये रातें बनी हैं ?
कहो !
क्यों कच्ची गरदनों टेकने को,
ख़्वाबों की टूटी श्रृंखला दबाने को
पाहु-पाश के रत्यात्मक एहसासों को
तकियों की ज़रुरत पड़ने लगी है ?
कहो !
बदलकर कब हाड़-मॉस की मुड़ी हुई कोहनियां को
जीवांत पेड़ों के लट्ठों, ईटों चट्टानों को
सूती दायरों में कैद मखमल और कपास के अम्बारों ने
शयन कक्ष में एक तकियायी हासिल की है ?
शायद
विलासता और सुख साधना में धंसकर
मनुष्य जीवी प्राणी उस स्तर पे पहुंचा है कि
समय सारिणी से जीवन बिताता है तकियों पे सोता है
स्वप्न-दर्शी संभावनों को झूठा बताता है।
~ सूफ़ी बेनाम
No comments:
Post a Comment
Please leave comments after you read my work. It helps.