Monday, January 18, 2016

पत्थर


पत्थरों ने ही मजनून की पहचान बनायीं थी
इन्हीं में बसती शहरों की ला-मकाँ खुदाई थी
रहती नहीं थी इनमें कभी इक अर्स की दौलत
हर रोज़ की आफ़त मुस्तक़िल रहनुमाई थी


~ सूफी बेनाम



मजनून - Majnu the lover of Laila.  ला-मकाँ  - Homeless, Omnipresent, अर्स  - time, मुस्तक़िल - Permanent, Firm. 

Saturday, January 16, 2016

एक झील सा नशेमन चारों तरफ किनारे

मिल गयीं जो  सांसें गिरेबां के किनारे
देखनी है दुनिया इन्हीं सांसों के सहारे

कपड़े नहीं हैं ढकते बदन के भोलेपन को
रहना तुम बटन से इस काज के किनारे

महीनों में थे लिपटे सालों के ये नगीने
तुम लम्हों को बिताना थोड़ा सा संभलके

आज़ाद है इंसा एक मौज की ललक सा
रिश्तों में जी गये कुछ ले कर के दिलासे

गहराईयों में बेचैन किसकी रहा मैं इतना
एक झील सा नशेमन चारों तरफ किनारे

दिल से आज़ाद नहीं था कभी कोई परिंदा
बस आरज़ू को उड़ता गुत्थी है आसमां रे

गर प्यास सी गुज़रे बेनाम की मोहब्बत
सुफ़ियत समझना किसी शेर के सहारे।

~ सूफी बेनाम




कब से गुम है अंदाज़ तारिख का


शरारत हम ही से कर गया कोई
लपक के ख्वाब जगा गया कोई

फिर यूं तो करवट पढ़े अंधेरों को
शायद कम्बल थमा गया कोई

सुलगने लगे होंगे सिरहाने देखो
आतिशे हसरत दिखा गया कोई

तिराहों पे भी सफ़ी रह गये तुम
नज़र को अक्स उलझा गया कोई

कब से गुम है अंदाज़ तारिख का
रातों को दिन फिर जला गया कोई

क्यों था खेला उसकी फ़ितरत से
बस एक आह से जला गया कोई

ग़ज़ब छाँव  धूप में आँचल उसका
मीठी बातों का गाँव बसा गया कोई

अब शिफ़ा है नाम-ओ-शहर उसका
क़दमों को गलियाँ दिखा गया कोई

अजब है सूफियत का इल्म होना
जब बेनाम को पहचान गया कोई

~ सूफी बेनाम



सफ़ी - clear/ serene


हर शाम गुजरती है क्यों दर्द की बाहों में...

अंदर का खाली पन आतिशी सेहलाबों में
लिख-लिख के खाली है  सूफी ख्यालों में

कहाँ गये अफ़साने जो कल गाके सुनाये
अब किसको लिखजायें रफ़्ता तरानों में

रह गया अब क्या है सब बह गया मसी से
पुरानी कोहलपुरी के साथ चलते सवालों में

आज जगा हूँ तो दिन क्यों बतलाता नहीं
कौन सा कुनबा है मेरा इन हिस्से दरों में

क्यों चलें कदम मेरे तेरी बेनामी के साथ
कौन है अपना और पराया कौन रिश्तेदारों में

ले आना गप-शप उस शाम के सेहरा से
साहिल पे जो डूबा और सांसें सवालों में

~ सूफी बेनाम


किसी गोरख बहाने से क्या फ़ायदा

सवालों से जी चुराने से क्या फ़ायदा
और मिलने मिलाने से क्या फ़ायदा

जब परछाइयों में मैल दिखने लगे
किसी गोरख बहाने से क्या फ़ायदा

मुड़ के बेपरवाह टकरा जाओ सनम
याद में चोट सहलाने से क्या फ़ायदा

देख मोहब्बत की राह के कंकड़ों को
पाअों से रक्त बहाने से क्या फ़ायदा

राह से हटकर मिलो तो जानोगे तभी
नाम से पहचान बनाने से क्या फ़ायदा

छिड़ गयी अगर बहस सूद-ओ-ज़ियाँ
फिर फुर्सत में बुलाने से क्या फ़ायदा

बात ग़ज़ल की गिरह तक ही रहने दे
इसको हसरत बनाने से क्या फ़ायदा

~ सूफी बेनाम



उससे मिटटी जियाने का तरीका सीखना है

हम लिखते क्यों हैं ?

फ़क़त आदम ही हैं हम कोई  फ़रिश्ते नहीं
आदम तक पहुँचने का तरीका सीखना है

हसरत को कहजाने  का तरीका सीखना है
भाषा में समा जाने का तरीका सीखना है

रदीफ़ औ काफ़िया तो चाँद और सूरज से हैं
बदली में सर छुपाने का तरीका सीखना है

दीन-ए-फरियाद-औ-दर्द की कोई भाषा नहीं
हमें खुद गुनगुनाने का तरीका सीखना है

जब हैं सेहलाब खुदी और समुन्दर भी हम
हमें खुद में डूब जाने का तरीका सीखना है

मेरी मिटटी में जिस पटी ने थी जान फूँक दी
उससे मिटटी जियाने का तरीका सीखना है

~ सूफी बेनाम

पटी -angel



मतलब से खुद को पूछते हैं

मेरी रिज़ालत में गूंजते हैं
तेरी अकीबत को पूछते हैं

लफ्ज़ ओंठों पे रह गये जो
तन्हाई में फिर क्या ढूँढ़ते हैं

लौटे किस्मत से टकरा फिर
क्यों ठंडी दीवार पे गूंजते हैं

है सर-गर्मी दीवारों के पार
जहाँ अपने अपनों को चूमते हैं

तुमने दिखायी परदाज़ मुझको
कि इबादत असर  आवारगी है

अब तल्ख़ मुझो है अक्स भी
ग़र्क़ जज़बात औ अधूरे चेहरे

अब ऐसी आदत पड़ी है तेरी
खुद से मतलब फ़क़त ढूँढ़ते हैं

~ सूफी बेनाम




तल्ख़ - distasteful
ग़र्क़ - sunk
रिज़ालत - lowness/worthlessness,
परदाज़ - adorn/perform,

अक्सर

अक्सर हो गया था कभी-कभी का मिलना लेकिन 
तमाम बंदिशों से गुज़रकर भी हर रोज़ अक्सर था 
है इल्म कि बीताया है खुद को, इस दौर में अक्सर 
अक्सर रह नहीं पाते खुदी में जो रोज़ मिलते हैं। 

~ सूफी बेनाम


एक किता में समझौता कर गये

शायद ख्याल से जलकर गये
मिसरों से अंदाज़ सुलगकर गये

हाय जो फ़िरते थे आवारा राह में
किस तरह काँटों से फटकर गये

जो चपके रह गये थे जिल्द से
वो हवाओं में सर पटककर गये

हर हर्फ़ जब था ज़रूरी मश्क़ का
एक किता में समझौता कर गये

वो ख्याला ग़ज़ल आज़ाद रही
शम्स को मेरी हिरासत कर गये

~ सूफी बेनाम


उस शाम नवेली थी जो आज पहेली है

बस हर्फ़ से दिलों का इज़हार नहीं होगा
अब यूं मुह मोड़ने से इंकार नहीं होगा

एक बार लगा ऐसा शायद तू हमारी है
धोखा हुआ जो हमको हर बार नहीं होगा

इसदिन की बातों को उस दिन दोहराना
इकरार हमारा फिर बेज़ार नहीं होगा

उस शाम नवेली थी जो आज पहेली है
हयात की कश्ती में पतवार नहीं होता

उस रोज़ मसीहा थे तेरे शाम के वादों पे
शामों का कौसर अब खुमार नहीं होगा

हम हौले चलते हैं अपने ही नसीबा पे
रफ़्तार जला कोई औज़ार नहीं होगा

हैं दिल सा नादां जो सांसों पे चलता है
है रूह ख्याला क्यों एतबार नहीं होता

~ सूफी बेनाम



Thursday, January 7, 2016

मेरे बाद शायरी

कोई यूं गुनगुनाता है शामों को शायरी
ज़िंदा रखेगी मुझको मेरे बाद शायरी

हर शेर को गिरह तक छू कर देखा
उसे और भी छुएगी मेरे बाद शायरी

ज़िंदा है स्याह कागज़ जानता हूँ मैं
दहकायेगी मेरा रम्ज़ मेरे बाद शायरी

इतने दीवाने फिर भी सरगोशियों से दिन
शाम लबों से छलकेगी मेरे बाद शायरी

सांसों की भसक नब्ज़ सधी रही है रोज़
दीवानों की रक्तिम रहे मेरे बाद शायरी

उम्मीद तो यही थी किसी दर्द को कहे
लगता है होगी हमदर्द मेरे बाद शायरी

लम्हा नहीं अरसों है ज़िन्दगी के साथ
किसी हो के जियेगी मेरे बाद शायरी

अब तक जिसे ग़ज़ल में बांधता रहा
गीत बन खिल उठेगी मेरे बाद शायरी

अल्फ़ाज़ों की गिरह में गर तू भी बहेगा
तुझो डुबो चलेगी मेरे बाद शायरी
~ सूफी बेनाम



Saturday, January 2, 2016

नया साल 2016

काफ़िया – आये
रदीफ़ – साल ये
मिसरा : इक नई उम्मीद लाये साल ये
फिर मजलिस जमाये साल ये
फिर मौका मुलाकाते साल ये

नज़र की शुआओं में रौश को
काजल तलक सुलगाये साल ये

तेरी नायाब ख़ुशी का वरिसां
मुझको यूं ही बनाये साल ये

फिर तेरी उम्मीद मेरी आरज़ू
उल्फ़त बकाया किराये साल ये

गर मज़हबी हो हसरते महीना
मैं तेरा मुसलमा सजदे साल ये
~ सूफी बेनाम