Monday, May 29, 2017

फिर गुलिस्तां में घर जा बसाना पड़ा

भोर-भूला, तुमी हो बताना पड़ा
कैस की असलियत को छुपाना पड़ा

था ज़रूरी नहीं आपको कुछ मगर
हर बहाने को ज़रिया बनाना पड़ा

शर्त दर शर्त थी हमने हारी मगर
वस्ल का दौर हमको भुलाना पड़ा

यूँ न धोया करो इश्क़ की मैल को
मस्क रातों में फिर से जगाना पड़ा

आपने सादगी को है ओढा हुआ
इसलिये घर हमीको सजाना पड़ा

कुछ तो आफत बनो नाजनी गुलबदन
फालतू में हमे कुनमुनाना पड़ा

था सुलगता हुआ कश पे कश रात भर
खांसते-खांसते दिन बिताना पड़ा

याद रहता नहीं कोइ चहरा हमे
हर किसी को हमे पास लाना पड़ा

ढूँढता रह गया आप की गंध को
फिर गुलिस्तां में घर जा बसाना पड़ा

~ सूफी बेनाम (आनन्द खत्री )



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