Friday, May 26, 2017

कहो कबूतरी !!

कहो कबूतरी !!


हकोबा- चिकनकारी-कलमकारी के
दुपट्टों के शिल्प की
बारीकी के-से गुंथे
तुम्हारे
स्फ़टिक श्वेत परिपक्व
भावमय-डैने,
जब मेरे इर्द-गिर्द के
खुलेपन में सांस लेते
विशुद्ध-आस्मान के
असीम विस्तार तक
अपनी अभ्यस्त उड़ानों में
कभी लहराकर
कभी फड़फड़ा कर,
मेरी अँगुलियों की गिरफ़्त से
इश्तिहारी आज़ादी का
ऐलान तो करते हैं
परन्तु
इन्हीं अँगुलियों का
अभ्यास है जो
दवात में घुले
कई मौसमों के
असंख्य एहसासों को
पर्ण-लेखनी की नोक से
तंतु-जाल सी आकृतियों में
उभरते शब्दों को कतारों में
बांधते हुए
जीव और जीवन के अनेक
विस्तारों को भावनाओं को
खोलता है, मुक़्त करता है।


काश तुम मेरी हथेलियों का
स्पन्दन महसूस करने को लौट आते।


~



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